वो हृदय विदारक दृश्य
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उफ्फ़ वह मानव
जो बैठा था कड़ाके की सर्दी में
सुबह-सुबह मेरे घर के पास
बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे-उलझे बाल
तन पर एक मैला सा कम्बल लपेटे
सरकारी दान का कम्बल
नहाए अर्सा हुआ हो शायद
जल्दी-जल्दी समेट रहा था
रोटी के टुकड़ों को
खाने लगा वहां पड़े चावल
जो डाले गए थे गली के कुत्तों हेतु
वे कुत्ते खड़े उस पर भौंक रहे थे
क्योंकि नाराज़ थे उससे
अपने हिस्से का खाना छीनने पर
आह, वो हृदय विदारक दृश्य
मेरे पति ने दिखाया था मुझे सुबह-सुबह
जागृत करने को तन्द्रा से।
मैं दुःख से चिल्लाती भागी रसोई की ओर
दो परांठे हाथ ही में लिए
दौड़ पड़ी उसे देने को
किन्तु जा चुका था वो तब तक
पति को दौड़ाया उसके पीछे
उन्होंने आवाज़ लगायी उसे
वो तुरंत पीछे मुड़ा
परांठे देखकर चमक उठी उसकी आँखे
जाने कब की भूख
शांत होने की आशा से
खुश हुआ वो, बेहद खुश
मैं चाहती थी उसे ऊनी वस्त्र देना
मगर वो ठहरा ही नही
कितना अपार संतोषी था वो
दीन-हीन फटेहाल
सोचती रह गयी मैं
अन्न की उस बर्बादी को
जो अमूमन हर शख्स करता है
अलमारी में भरे उन ऊनी वस्त्रों को
जिनका पूरी सर्दी तन पे सजने का
अवसर भी नही आता
फिर भी परेशान रहता है इंसान
भौतिक सुख की कमी से
कोसता है हरदम प्रारब्ध को
दोष देता है ईश्वर को
काश...उस दीन सा संतोष
पा जाए हर मानव
तो मिट जाएगा त्रास संसार का
हर कोई खुद खाकर,
दूसरे को भी खिला पाए
खुद के फालतू वस्त्र
दूसरे को बाँट पाए
अपनी खुशी को बाँटकर
दूसरे को भी हंसा पाए
तो मिट जाएंगे
दुःख, दारिद्र्य, दीनता
इस संसार से सदा के लिए
सदा-सदा के लिए
{सत्य घटना, चित्र सांकेतिक है। दिनाँक-27-12-2019}
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उफ्फ़ वह मानव
जो बैठा था कड़ाके की सर्दी में
सुबह-सुबह मेरे घर के पास
बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे-उलझे बाल
तन पर एक मैला सा कम्बल लपेटे
सरकारी दान का कम्बल
नहाए अर्सा हुआ हो शायद
जल्दी-जल्दी समेट रहा था
रोटी के टुकड़ों को
खाने लगा वहां पड़े चावल
जो डाले गए थे गली के कुत्तों हेतु
वे कुत्ते खड़े उस पर भौंक रहे थे
क्योंकि नाराज़ थे उससे
अपने हिस्से का खाना छीनने पर
आह, वो हृदय विदारक दृश्य
मेरे पति ने दिखाया था मुझे सुबह-सुबह
जागृत करने को तन्द्रा से।
मैं दुःख से चिल्लाती भागी रसोई की ओर
दो परांठे हाथ ही में लिए
दौड़ पड़ी उसे देने को
किन्तु जा चुका था वो तब तक
पति को दौड़ाया उसके पीछे
उन्होंने आवाज़ लगायी उसे
वो तुरंत पीछे मुड़ा
परांठे देखकर चमक उठी उसकी आँखे
जाने कब की भूख
शांत होने की आशा से
खुश हुआ वो, बेहद खुश
मैं चाहती थी उसे ऊनी वस्त्र देना
मगर वो ठहरा ही नही
कितना अपार संतोषी था वो
दीन-हीन फटेहाल
सोचती रह गयी मैं
अन्न की उस बर्बादी को
जो अमूमन हर शख्स करता है
अलमारी में भरे उन ऊनी वस्त्रों को
जिनका पूरी सर्दी तन पे सजने का
अवसर भी नही आता
फिर भी परेशान रहता है इंसान
भौतिक सुख की कमी से
कोसता है हरदम प्रारब्ध को
दोष देता है ईश्वर को
काश...उस दीन सा संतोष
पा जाए हर मानव
तो मिट जाएगा त्रास संसार का
हर कोई खुद खाकर,
दूसरे को भी खिला पाए
खुद के फालतू वस्त्र
दूसरे को बाँट पाए
अपनी खुशी को बाँटकर
दूसरे को भी हंसा पाए
तो मिट जाएंगे
दुःख, दारिद्र्य, दीनता
इस संसार से सदा के लिए
सदा-सदा के लिए
{सत्य घटना, चित्र सांकेतिक है। दिनाँक-27-12-2019}