Monday, 14 October 2019

संस्कार निर्माण में शिक्षक की भूमिका

*संस्कार निर्माण में शिक्षक की भूमिका*

'शिक्षा का सामान्य उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है।' शिक्षा वह धुरी है जो बालक के जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है तथा जीवन पर्यन्त चलती है। इसके प्रमुख रूप हैं औपचारिक व अनौपचारिक। अनौपचारिक शिक्षा बालक घर व समाज से प्राप्त करता ही है किंतु औपचारिक शिक्षा हेतु उसे अनिवार्य रूप से विद्यालय में प्रवेश लेना होता है।

औपचारिक शिक्षा के केंद्र विद्यालय की बालक के व्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका है। यहाँ प्राप्त पुस्तकीय ज्ञान ही उसके कर्मक्षेत्र का आधार बनता है। इसी शिक्षा के आधार पर कोई बालक शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील या कुछ और बन पाता है। यही शिक्षा उसके आगामी जीवन में उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है।

सवाल यह उठता है कि बालक को सफल सर्विसमैन या बिजनेसमैन बनाने वाली शिक्षा ही क्या उसके लिए पर्याप्त है??

क्या पुस्तक पढ़ने मात्र से कोई बालक ईमानदार, सत्यनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ व देशभक्त बन सकता है??

क्या पुस्तक पढ़ने मात्र से आप किसी को इंसान (इंसानियत से परिपूर्ण) बना सकते हैं??

मेरे निजी विचार से ऐसा संभव नही है। पुस्तकीय ज्ञान के साथ परम अनिवार्य है बच्चों को संस्कार व आचरण की शिक्षा देना। कुछ लोग मानते हैं कि संस्कार सिखाना परिवार का कार्य है। स्कूल के लिए यह विषय अनिवार्य नही है। किन्तु मेरे विचार से संस्कार निर्माण में स्कूल की ही सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

प्राथमिक स्तर पर बच्चा सबसे अधिक प्रभावित होता है अपने शिक्षक से। उसके लिए शिक्षक की बात पत्थर की लकीर होती है। अपने माता-पिता को भी बच्चा अनसुना कर देता है अपने शिक्षक के लिए। इसी बात का लाभ शिक्षक को मिलता है बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण हेतु। शिक्षक बच्चों को स्नेहपूर्वक अच्छे कार्य करने हेतु प्रोत्साहित कर सकता है। उन्हें उनकी गन्दी आदतें छोड़ने पर सभी के समक्ष पुरुस्कृत कर सकता है। उत्साहवर्धन हेतु मॉर्निंग असेंबली में अच्छे बच्चों हेतु तालियां बजवा सकता है। इससे बच्चे को मानसिक संबल प्राप्त होता है तथा उसे लगता है कि यदि वह रोज यूँ ही अच्छा कार्य करेगा तो उसके शिक्षक रोज ही उसकी प्रशंसा किया करेंगे।

शिक्षक का स्वयं का आचरण भी एक उदाहरण होता है बच्चों हेतु अनुकरण के लिए। शिक्षक का व्यवहार बच्चे को सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही बना सकता है। अनिवार्य है कि शिक्षक संस्कारों की शिक्षा स्वयं के उत्तम आचरण से प्रारंभ करें। बच्चे निश्चित रूप से अपने शिक्षक जैसा ही बनने, दिखने व अनुसरण करने का प्रयास करते हैं।

प्रार्थना सभा का समय सर्वाधिक उपयुक्त है बच्चों में नैतिक मूल्य का विकास करने हेतु। बच्चा शारीरिक व मानसिक दोनों रूप से तरोताज़ा होता है। इस समय शिक्षक द्वारा की गयी थोड़ी सी प्रशंसा बच्चे को अगले दिन और भी अच्छे स्वरुप में आने हेतु प्रोत्साहित कर देती है।

शिक्षक बच्चों को प्रार्थना सभा में एक सप्ताह तक करने हेतु छोटे-छोटे टास्क दे सकता है, जैसे कि अपने माता-पिता व दादा-दादी की सेवा करनी है। किसी गरीब की मदद करनी है। पेड़ों में पानी देना है या पानी को बर्बाद नही होने देना। एक सप्ताह बाद बच्चे ने जो भी किया उस अनुभव को उसे असेंबली में सभी के साथ साझा करना है। एक बार संकोच करने के उपरान्त बच्चा इसी कार्य को पूरे मन से करेगा। इसके जरिये बच्चे में अपने से बड़ों के प्रति श्रद्धा भाव तो आएगा ही, वह उनकी सेवा करना भी सीखेगा।  उसका अपने बड़ों के प्रति लगाव बढ़ेगा। सभी के सामने अपने अनुभव साझा करने से उसके मन से संकोच का भाव समाप्त होगा, स्वयं को अभिव्यक्त करने की कला आएगी वह एक कुशल वक्ता भी बनेगा।  इस एक्टिविटी को आप हर सप्ताह बच्चे को दीजिये, निश्चित ही इसके सकारात्मक परिणाम परिलक्षित होंगे।

हमें बच्चों को संस्कारी होने के विषय में मात्र बताना नही है बल्कि उन्हें संस्कारी बनाना है। अतः हमें उन्ही गतिविधियों पर बल देना होगा जिनके जरिये उनमें संस्कार स्वयं ही स्थापित हों। संस्कार की शिक्षा किसी विशेष स्कूल, किसी विशेष माध्यम या किसी विशेष राज्य तक सीमित नही है। इसका क्षेत्र संपूर्ण देश है। अतः गतिविधि के रूप में इसे संपूर्ण देश के सभी स्कूलों में कराया जाना अनिवार्य है। तभी हमारी शिक्षा बालक को एक डॉक्टर, एक इंजीनियर, एक शिक्षक होने के साथ-साथ एक सहृदय इंसान बनाने में सफल हो सकती है।

लेखिका
रीता गुप्ता
सहायक अध्यापिका
मॉडल प्राइमरी स्कूल बेहट नम्बर एक, सहारनपुर

5 comments:

  1. संस्कार निर्माण मेँ शिक्षक की भूमिका..सुन्दर प्रस्तुति रीता जी 👌👌👌🌹🌹🌹💐💐

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  2. वाकई में आपने हम सभी के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है

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  3. मैं आपकी इस पोस्ट को कॉपी पेस्ट कर पोस्ट करना चाहता हूँ... क्या मेरे लिए यह उचित होगा...🙏🏻🙏🏻

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  4. जी सर, बिलकुल

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  5. बहुत अच्छा लेख है किताबी ज्ञान के साथ संस्कार का होना भी बहुत जरूरी है

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